इतिहास के पन्नों में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो समय बीतने के साथ धुंधली नहीं होतीं, बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी और अधिक स्पष्ट होती जाती हैं। श्री गुरु अर्जुन देव जी की शहादत एक ऐसी ही अमर गाथा है, जो न केवल सिख पंथ के लिए बल्कि समस्त मानवता के लिए त्याग, धैर्य, और परमार्थ की प्रेरणा बन चुकी है।
जन्म और बाल्यकाल – जब आध्यात्मिक प्रकाश फूटा
श्री गुरु अर्जुन देव जी, सिखों के पांचवें गुरु, श्री गुरु रामदास जी के सुपुत्र थे। वे अपने तीन भाइयों में सबसे छोटे थे, परन्तु आध्यात्मिक गुणों में सबसे महान सिद्ध हुए। उनकी बाल्यावस्था से ही उनके अंदर की ईश्वर भक्ति, करूणा और गहरी चिंतनशीलता सभी को चौंकाती थी।
उनके नाना, श्री गुरु अमरदास जी, ने भी उनकी आध्यात्मिक प्रतिभा को पहचानते हुए भविष्यवाणी की थी कि यह बालक एक दिन संसार को अज्ञानता से पार लगाने वाला जहाज बनेगा। उन्हें ‘बाणी का बोहिता’ कहा गया, जिसका अर्थ है वह जहाज जो गुरबाणी के सहारे संसार के दुःख-सागर से पार लगाएगा।
गुरु गद्दी की प्राप्ति और महान कार्य
महज 18 वर्ष की आयु में श्री गुरु रामदास जी के जोति जोत समाने के पश्चात्, श्री गुरु अर्जुन देव जी ने गुरुगद्दी संभाली। उनके जीवन का हर कार्य सेवा, साधना और परोपकार का प्रतीक बन गया।
उनका गुरुत्व काल लगभग 25 वर्षों तक चला। इस दौरान उन्होंने:
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श्री हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) का निर्माण कराया, जो आज न केवल सिखों का बल्कि पूरी दुनिया का एक पवित्रतम स्थल माना जाता है।
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श्री गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन किया – यह कार्य साधारण नहीं था। विभिन्न संतों की वाणियों को एकत्र कर, सत्य और धर्म की दृष्टि से उन्हें एक ही ग्रंथ में समाहित करना एक दिव्य कार्य था।
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अमृतसर, तरनतारन, संतोखसर, रामसर, लाहौर में बाउली, कतरपुर, और कई पवित्र नगरों का निर्माण कराया।
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मानव सेवा, लंगर सेवा, और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के लिए अनेकों संस्थाएं स्थापित कीं।
शहादत – जहां तप और त्याग की पराकाष्ठा दिखी
जब तक मुगल सम्राट अकबर जीवित था, सिख पंथ की सेवा और उदारता को समर्थन मिला। परंतु अकबर के पश्चात् जहांगीर ने शासन संभाला, जो कट्टर और असहिष्णु था। उसे गुरु अर्जुन देव जी की बढ़ती लोकप्रियता और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पसंद नहीं थी।
जहांगीर ने उन्हें राजनीतिक और धार्मिक शत्रु मानते हुए, 1606 ईस्वी में लाहौर बुलाया। आरोप लगाया गया कि उन्होंने जहांगीर के भाई खुसरो को आश्रय दिया। यह एक राजनीतिक बहाना था, असली वजह थी – सिख धर्म की बढ़ती स्वीकार्यता और जन समर्थन।
जहांगीर के आदेश पर, 30 मई 1606 को, उन्हें ‘यासा-ए-सियासत’ कानून के तहत भीषण यातनाएं दी गईं। बिना रक्त बहाए, उन्हें लोहे की तपती तवी पर बैठाया गया, उनके शीश पर गर्म रेत डाली गई। शरीर जलकर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। अंततः उन्हें ठंडे रावी दरिया में स्नान करने के बहाने भेजा गया, जहां वे जल में समाकर ज्योति जोत समा गए।
जहां शहीदी हुई, वहां बना गुरुद्वारा डेरा साहिब
गुरु जी की शहादत जिस स्थान पर हुई, वहीं गुरुद्वारा डेरा साहिब का निर्माण हुआ, जो आज पाकिस्तान के लाहौर में स्थित है। यह स्थान आज भी सिख श्रद्धालुओं के लिए तीर्थ के समान है।
गुरु अर्जुन देव जी की शहादत का संदेश
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उनकी शहादत यह बताती है कि सत्य की राह में बलिदान तो हो सकता है, पर पराजय नहीं।
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गुरु जी का जीवन दिखाता है कि धर्म, सहिष्णुता और समरसता की रक्षा हेतु अपने प्राणों का त्याग भी छोटा हो जाता है।
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उनका बलिदान सिख इतिहास की पहली शहादत थी, जिसने आने वाले गुरुओं और श्रद्धालुओं को भी प्रेरणा दी।