Sant Kabir Jayanti: जात-पात तोड़कर, कबीर की वाणी ने इंसान को इंसान बनना सिखाया।

चंडीगढ़, 11 जून: संत कबीर का जीवन एक गूढ़ रहस्य, एक प्रेरणा और सामाजिक परिवर्तन की पुकार है। वे न सिर्फ एक कवि थे, बल्कि एक युगद्रष्टा, समाज-सुधारक और निर्भीक आध्यात्मिक विचारक थे, जिनकी वाणी आज भी हर इंसान को आत्मा की सच्चाई से जोड़ने की प्रेरणा देती है।

 संत कबीर का जन्म और रहस्यमयी प्रकट होना

संत कबीर साहिब का प्रकटोत्सव ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा, सोमवार के दिन सन् 1398 ईस्वी को हुआ। इस दिन की एक विलक्षण कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि काशी निवासी जुलाहा नीरू अपनी नवविवाहिता पत्नी नीमा का गौना कराकर घर लौट रहा था। रास्ते में, लहरतारा नामक तालाब के पास, नीमा को प्यास लगी और वह पानी पीने तालाब में उतरी। तभी उसने कमल के फूलों के बीच एक नवजात शिशु के रोने की आवाज सुनी। यह वही दिव्य शिशु था, जिसे नीरू-नीमा ने अपनाया और जिसने आगे चलकर ‘संत कबीर’ के रूप में विश्व को दिशा दिखाई।

जिस स्थान पर वे मिले, वह ‘प्रकटस्थली’ के नाम से जाना गया और वहीं बाद में एक भव्य मंदिर का निर्माण हुआ। आज भी यहां हर साल देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु आते हैं और संत कबीर की स्मृति को नमन करते हैं।

 कबीर साहिब का बाल्यकाल

नीरू टीला, जो अब तीर्थस्थल बन चुका है, संत कबीर का वह घर था जहां उन्होंने बाल्यकाल बिताया। उनके दत्तक माता-पिता वस्त्र बुनाई का कार्य करते थे, और संत कबीर ने भी उसी कार्य में निपुणता प्राप्त की। परंतु उनका मन संसारिक जीवन में नहीं रमा। बचपन से ही उनका झुकाव आध्यात्मिकता की ओर था, वे तत्वज्ञान में रुचि लेने लगे और जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझने लगे।

 कबीर की वाणी: समाज की आंखें खोलने वाली

कबीर साहिब की वाणी, जिसे ‘साखी’ कहा जाता है, केवल शब्द नहीं हैं, बल्कि अनुभवों की अग्नि में तपे हुए वे मोती हैं जो जीवन की दिशा बदल सकते हैं। उनके शब्द आत्मा की पुकार हैं, अज्ञानता को मिटाने वाले दीपक हैं।

वे कहते हैं:

“जात-पात के कीच में, डूब मरो मत कोय।
जात न पूछे जगदीश की, हरिजन की कहां होय॥”

इस साखी में संत कबीर ने जाति-पांति को सिरे से नकारा। उनका संदेश स्पष्ट है—जब ईश्वर की कोई जात नहीं है, तो उसके भक्त की कैसी जात? समाज को उन्होंने एकता, समानता और समरसता की सीख दी।

 कबीर: आत्मविश्लेषण के समर्थक

“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥”

कबीर आत्ममंथन में विश्वास रखते थे। उनके लिए सुधार की शुरुआत खुद से होती है। दूसरों में दोष ढूंढ़ने के बजाय जब उन्होंने अपने अंतर्मन में झांका, तो उन्हें समझ आया कि सबसे अधिक सुधार की आवश्यकता स्वयं को है।

 स्थान नहीं, भावना महान है

“मनहु कठोर मरै बनारस, नरक न बांच्या जाई।
हरि का संत मरै हांड़वैत, सगली सैन तराई॥”

कबीर कहते हैं कि स्थान का कोई महत्व नहीं, महत्त्व है जीवन के कर्म और आत्मा की पवित्रता का। यदि कोई पापी बनारस जैसे पवित्र शहर में भी मरता है, तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। वहीं, भगवान का भक्त चाहे कहीं भी मरे, वह न केवल स्वयं को बल्कि अपने अनुयायियों को भी तार देता है।

 प्रेम: जीवन का अंतिम सत्य

“प्रेमी ढूंढत मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोय।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, तब सब विष अमृत होई॥”

कबीर प्रेम को ईश्वर का सर्वोच्च रूप मानते थे। उनके अनुसार, जब दो सच्चे भक्त मिलते हैं, तो यह संसार जो कभी कटुता और विष से भरा लगता था, वह प्रेम और अमृत से भर जाता है।

कबीर: एक सामाजिक क्रांति

कबीर साहिब केवल एक भक्त या कवि नहीं थे, वे समाज की रीढ़ को बदलने वाले योद्धा थे। उन्होंने धर्म के नाम पर फैलाए जा रहे झूठ, पाखंड और जातिवाद का तीखा विरोध किया। वे निर्गुण भक्ति के उपासक थे—ऐसे भक्ति मार्ग के जो किसी मूर्ति, कर्मकांड या बाह्य प्रदर्शन में नहीं बल्कि आत्मा की सच्ची पुकार में विश्वास करता है।

उनकी वाणी हमें आज भी यह सिखाती है कि:

  • जाति और पंथ में मत उलझो।

  • आत्मा की सच्चाई को जानो।

  • सच्चे प्रेम को पहचानों।

  • ज्ञान को अपनाओ, अंधविश्वास को छोड़ो।