चंडीगढ़, 10 अप्रैल: जब बात सत्य, अहिंसा और त्याग की होती है, तो सबसे पहले जिनका नाम स्मरण होता है, वे हैं भगवान महावीर स्वामी – जिनकी शिक्षाओं ने न केवल भारतीय संस्कृति में एक गहन क्रांति लाई, बल्कि करोड़ों लोगों के जीवन को दिशा और दर्शन दिया।
आज, हम भगवान महावीर स्वामी की 2622वीं जयंती पर उनके चरणों में सादर नमन करते हैं। यह दिन चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को बिहार के कुंडलग्राम नगर में जन्मे उस महापुरुष की स्मृति में मनाया जाता है, जिनकी दृष्टि में धर्म का मूल उद्देश्य आत्मशुद्धि और विश्वशांति था।
वर्धमान से महावीर तक: एक तपस्वी जीवन का आरंभ
भगवान महावीर का जन्म एक समृद्ध और प्रतिष्ठित क्षत्रिय कुल में हुआ। उनके पिता राजा सिद्धार्थ और माता महारानी त्रिशला अपने समय के सम्मानित और धर्मनिष्ठ शासक थे। त्रिशला माता ने गर्भावस्था के दौरान 14 शुभ स्वप्न देखे, जिनका अर्थ शास्त्रों ने यह निकाला कि आने वाला पुत्र असाधारण होगा — या तो एक चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या एक तीर्थंकर।
राजकुमार का नाम ‘वर्धमान’ रखा गया क्योंकि उनके जन्म के साथ ही राज्य की समृद्धि में चमत्कारी वृद्धि हुई। बचपन से ही वे साहसी, बुद्धिमान और निर्भीक थे। एक बार जब उनके मित्र एक सर्प को देखकर भाग गए, वर्धमान ने निडर होकर उस सर्प को पकड़ लिया और उसे एकांत स्थान पर सुरक्षित छोड़ आए। इस अद्भुत साहस ने उन्हें ‘महावीर’ की उपाधि दिलाई।
सांसारिक जीवन से वैराग्य की ओर
युवा होते ही वर्धमान का मन सांसारिक सुखों से विमुख होने लगा। उनके पिता ने चिंतित होकर उनका विवाह कौशलराज समरवीर की पुत्री यशोदा से करवा दिया। एक पुत्री ‘प्रियदर्शना’ भी उनके जीवन में आई। परंतु जब महावीर 28 वर्ष के हुए, तो उनके माता-पिता का निधन हो गया।
समाज, परिवार और दरबार ने आग्रह किया कि वे सिंहासन ग्रहण करें, लेकिन राजमहल और वैभव को त्यागकर महावीर ने 30 वर्ष की आयु में घर-बार छोड़ दिया और वैराग्य का मार्ग चुना।
12 वर्षों की घोर तपस्या: दुःखों की पराकाष्ठा
महावीर की साधना केवल एकांत में ध्यान लगाना नहीं थी, बल्कि यह आत्मबल और सहिष्णुता की कठिन परीक्षा थी। वे जंगलों में भटके, बिना किसी वस्त्र के, बिना किसी रक्षक के। कई बार उन्हें अपमानित किया गया, पीड़ित किया गया। उनके शरीर पर अत्याचार हुए — कानों में कीलें ठोकी गईं, पैरों के नीचे आग जलाई गई, कुत्ते पीछे छोड़े गए — पर वे ध्यानस्थ ही रहे।
उनका निश्चय अडिग था — “जब तक केवल ज्ञान प्राप्त नहीं होगा, तब तक जनसंपर्क नहीं करूंगा।”
केवल ज्ञान की प्राप्ति: आत्मज्ञान का प्रकाश
12 वर्ष 6 महीने की कठिन तपस्या के बाद, वैशाख शुक्ल दशमी के दिन, गजुकूला नदी के तट पर भगवान महावीर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस ज्ञान की रौशनी ने चारों दिशाओं को आलोकित कर दिया। वे अब एक सर्वज्ञ बन चुके थे — उनके लिए कोई रहस्य शेष नहीं रहा था।
नारी उद्धार और समाज-सुधार की अद्वितीय सोच
महावीर स्वामी केवल एक धार्मिक गुरु नहीं थे, वे एक सामाजिक क्रांतिकारी भी थे। उन्होंने चंदनबाला के हाथों तीन दिन पुराना भोजन स्वीकार कर नारी जाति को समाज में सम्मान दिलाने का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने कहा — “मोक्ष का अधिकार नारी और पुरुष दोनों को समान रूप से है।” उन्होंने हजारों स्त्रियों को दीक्षा देकर संघ में स्थान दिया।
उनका संघ विशाल था — 14,000 साधु और 36,000 साध्वियां। उनके प्रमुख शिष्य गौतम स्वामी और साध्वी संघ की प्रमुख महासती चंदनबाला थीं।
अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह: जीवन के 5 महामूल्य
भगवान महावीर ने जिन पांच सिद्धांतों को अपनाया और सिखाया, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं:
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अहिंसा (Non-violence) – किसी भी प्राणी को मन, वचन और कर्म से हानि न पहुंचाना।
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सत्य (Truthfulness) – सच्चाई का पालन करना।
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अस्तेय (Non-stealing) – जो आपका नहीं है, उसे न लेना।
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ब्रह्मचर्य (Celibacy) – इंद्रिय संयम।
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अपरिग्रह (Non-possessiveness) – अनावश्यक भौतिक वस्तुओं का त्याग।
भगवान महावीर का अंतिम चातुर्मास पावापुरी में राजा हस्तिपाल की लेखशाला में हुआ। कार्तिक अमावस्या की रात, स्वाति नक्षत्र के योग में, जब वे लगातार 16 प्रहर तक प्रवचन दे चुके थे — उस रात उन्होंने शरीर त्याग दिया और परिनिर्वाण को प्राप्त हो गए।
उनकी मृत्यु कोई अंत नहीं थी, बल्कि एक ऐसा आरंभ था जिससे हजारों वर्षों से मानवता को दिशा मिलती रही है।