BMC चुनावों पर सुप्रीम कोर्ट- “लोकतंत्र की गाड़ी में आरक्षण का डिब्बा नहीं, समय पर चुनाव का इंजन चाहिए!”

चंडीगढ़, 6 मई: महाराष्ट्र में लंबे समय से रुके स्थानीय निकाय चुनावों, विशेषकर बृहन्मुंबई महानगरपालिका (BMC) के चुनावों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद सख्त और स्पष्ट रुख अपनाया है। अदालत ने चुनाव आयोग को आदेश दिया है कि वह 4 सप्ताह के भीतर अधिसूचना जारी करे और सुनिश्चित करे कि 4 महीनों के भीतर चुनाव प्रक्रिया पूरी हो

यह फैसला सिर्फ एक प्रशासनिक निर्देश नहीं है, बल्कि यह देश के लोकतांत्रिक ढांचे को बचाए रखने की एक चेतावनी है। कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र में चुने हुए प्रतिनिधियों का शासन होना चाहिए, न कि सरकारी अधिकारियों के जरिए प्रशासन चलाना।

ओबीसी आरक्षण पर तीखी टिप्पणी

इस मामले में अदालत ने ओबीसी आरक्षण व्यवस्था को लेकर भी बड़ी टिप्पणी की, जो अब देशभर में चर्चा का विषय बन चुकी है। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा:

“आरक्षण अब रेल का एक ऐसा डिब्बा बन चुका है, जिसमें जो लोग पहले से बैठे हैं, वे किसी और को चढ़ने नहीं देना चाहते।”

यह बयान न केवल मौजूदा आरक्षण व्यवस्था की जटिलताओं की ओर इशारा करता है, बल्कि उन सामाजिक विसंगतियों को भी उजागर करता है, जहां समानता के नाम पर नए वंचितों की एक कतार खड़ी होती जा रही है।

चुनाव में देरी को बताया लोकतंत्र के विरुद्ध

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि स्थानीय निकाय चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला हैं और इन्हें अनिश्चितकाल के लिए टालना संविधान के खिलाफ है। कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसे महत्वपूर्ण चुनावों में देरी से जनता की जवाबदेही खत्म होती है और सत्ता असंवैधानिक तरीके से चलने लगती है।

2022 से लंबित चुनाव: क्या है विवाद?

2022 से BMC सहित राज्य के कई अन्य शहरी निकायों के चुनाव ओबीसी आरक्षण की जटिलताओं के चलते स्थगित किए जाते रहे। इस मुद्दे को लेकर राज्य सरकार, चुनाव आयोग और न्यायपालिका के बीच गतिरोध बना रहा। ओबीसी वर्ग को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के लिए जरूरी आंकड़ों और कानूनी प्रक्रिया के अभाव के कारण मामला कोर्ट में अटका रहा।

कोर्ट का समाधान: पुरानी आरक्षण प्रणाली बहाल

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि जब तक ओबीसी आरक्षण पर बंथिया कमेटी रिपोर्ट से जुड़ी याचिकाओं का निपटारा नहीं हो जाता, तब तक पहले की आरक्षण व्यवस्था के तहत चुनाव कराए जाएं। यह एक तात्कालिक समाधान है, जो चुनावों की समयसीमा को बरकरार रखने के लिए जरूरी माना गया।

क्या है बंथिया कमेटी रिपोर्ट?

बंथिया समिति को ओबीसी समुदाय की जनसंख्या, सामाजिक स्थिति और राजनीतिक भागीदारी का गहन अध्ययन करने का जिम्मा सौंपा गया था। जुलाई 2022 में रिपोर्ट आ गई, लेकिन इससे जुड़ी याचिकाएं अब भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण व्यवस्था को अंतिम रूप देने में अभी समय लगेगा।

आरक्षण और समानता की जटिल बहस

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सामाजिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान और उन्हें सशक्त बनाना आवश्यक है, लेकिन यह सब ठोस डेटा और कानूनी प्रक्रियाओं के तहत ही होना चाहिए। कोर्ट का रुख यह दिखाता है कि आरक्षण सिर्फ सामाजिक न्याय का उपकरण नहीं, बल्कि एक संवैधानिक जिम्मेदारी है, जिसे बिना ठोस आधार के लागू करना लोकतंत्र के लिए नुकसानदायक हो सकता है।

फैसले का व्यापक असर

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित नहीं रहेगा। यह पूरे देश में उन राज्यों और निकायों के लिए एक सख्त संकेत है जहां चुनावों में देरी या आरक्षण व्यवस्था के कारण संवैधानिक जिम्मेदारियों को टालने की प्रवृत्ति देखी जाती है।

यह निर्णय बताता है कि देश के लोकतंत्र की नींव पर कोई भी समझौता स्वीकार्य नहीं होगा।